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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


कैदी (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद

आइवन का मन आज बहुत चंचल हो रहा था। कभी अकारण ही हँसने लगता, कभी अनायास ही रो पड़ता। शंका,प्रतीक्षा और किसी अज्ञात चिंता ने उसके मनो-सागर को इतना अशान्त कर
दिया था कि उसमें भावों की नौकाएँ डगमगा रही थीं न मार्ग का पता था न दिशा का। हेलेन भी आज बहुत चिन्तित और गम्भीर थी। आज के लिए उसने पहले ही से सजीले वस्त्र बनवा रखे थे। रूप को अलंकृत करने के न-जाने किन-किन विधानों का प्रयोग कर रही थी; पर इसमें किसी योद्धा का उत्साह नहीं, कायर का कम्पन था। सहसा आइवन ने आँखों में आँसू भरकर कहा, 'तुम आज इतनी मायाविनी हो गयी हो हेलेन, कि मुझे न-जाने क्यों तुमसे भय हो रहा है !'
हेलेन मुस्कायी। उस मुस्कान में करुणा भरी हुई थी -'मनुष्य को कभी-कभी कितने ही अप्रिय कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है आइवन, आज मैं सुधा से विष का काम लेने जा रही हूँ। अलंकार का ऐसा दुरुपयोग तुमने कहीं और देखा है ?'
आइवन उड़े हुए मन से बोला, 'इसी को राष्ट्र-जीवन कहते हैं।'
'यह राष्ट्र-जीवन है, यह नरक है।'
'मगर संसार में अभी कुछ दिन और इसकी जरूरत रहेगी।'
'यह अवस्था जितनी जल्द बदल जाय, उतना ही अच्छा।'
पाँसा पलट चुका था, आइवन ने गर्म होकर कहा, अत्याचारियों को संसार में फलने-फूलने दिया जाय, जिससे एक दिन इनके काँटों के मारे पृथ्वी पर कहीं पाँव रखने की जगह न रहे। हेलेन ने कोई जवाब न दिया; पर उसके मन में जो अवसाद उत्पन्न हो गया था, वह उसके मुख पर झलक रहा था। राष्ट्र उसकी दृष्टि में सर्वोपरि था, उसके सामने व्यक्ति का कोई मूल्य न था। अगर इस समय उसका मन किसी कारण से दुर्बल भी हो रहा था, तो उसे खोल देने का उसमें साहस न था।

दोनों गले मिलकर विदा हुए। कौन जाने, यह अन्तिम दर्शन हो ? दोनों के दिल भारी थे और आँखें सजल।
आइवन ने उत्साह के साथ कहा, 'मैं ठीक समय पर आऊँगा।' हेलेन ने कोई जवाब न दिया। आइवन ने फिर सानुरोध कहा, 'ख़ुदा से मेरे लिए दुआ करना, हेलेन !'
हेलेन ने जैसे रोते हुए गले से कहा, 'मुझे खुदा पर भरोसा नहीं है।'
'मुझे तो है !'
'कब से ?'
'जब से मौत मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गयी।'

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